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ग़ज़ल
हलाक-ए-नाला-ए-शबनम ज़रा नज़र तो उठा
नुमूद करते हैं 'आलम में गुल-रुख़ाँ क्या क्या
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
ख़त-ए-मुश्कीं को रैहाँ जानता हूँ बाग़-ए-आलम में
तिरी चश्म-ए-सियह को नर्गिस-ए-शहला समझता हूँ
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा वो नजात-ए-दिल का आलम
तिरा हुस्न दस्त-ए-ईसा तिरी याद रू-ए-मर्यम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है
शब-ए-फ़ुर्क़त के ग़म झेले हुओं का दम निकलता है
सफ़ी लखनवी
ग़ज़ल
गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
तब अमाँ हिज्र में दी बर्द-ए-लयाली ने मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है
मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है