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ग़ज़ल
करूँ बे-दाद-ए-ज़ौक़-ए-पर-फ़िशानी अर्ज़ क्या क़ुदरत
कि ताक़त उड़ गई उड़ने से पहले मेरे शहपर की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दिल को बचाने के लिए जाँ को सिपर करते रहे
लोगों से आख़िर क्या कहें 'शहपर' बचा कुछ भी नहीं
शहपर रसूल
ग़ज़ल
कभी मैं भी उड़ानें भरने वाला था बहुत ऊँची
मिरी पहचान इसी टूटे हुए शहपर पे लिख देना