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ग़ज़ल
किसी की चश्म-ए-सुरूर आवर से अश्क आरिज़ पे ढल रहा है
अगर शुऊर-नज़र है देखो शराब आधी गुलाब आधा
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
तुम्हारी बे-नियाज़ी तो हमारी बेबसी लाज़िम
अगर तुम ही नहीं सुनते तो अपनी ख़ामुशी लाज़िम
राम प्रकाश राही
ग़ज़ल
सुकूँ है हमनवा-ए-इज़्तिराब आहिस्ता आहिस्ता
मोहब्बत हो रही है कामयाब आहिस्ता आहिस्ता
रविश सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
ज़मीर को थपथपा के आख़िर सुला दिया और ख़ुश रहे हम