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ग़ज़ल
शरह-ए-ग़म तो मुख़्तसर होती गई उस के हुज़ूर
लफ़्ज़ जो मुँह से न निकला दास्ताँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
अब जो कोई पूछे भी तो उस से क्या शरह-ए-हालात करें
दिल ठहरे तो दर्द सुनाएँ दर्द थमे तो बात करें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
शरह-ए-फ़िराक़ मदह-ए-लब-ए-मुश्कबू करें
ग़ुर्बत-कदे में किस से तिरी गुफ़्तुगू करें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
तिरा लुत्फ़ वजह-ए-तस्कीं न क़रार शरह-ए-ग़म से
कि हैं दिल में वो गिले भी जो मलाल तक न पहुँचे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
निगाह ओ दिल से अब तफ़सीर-ओ-शरह-ए-आरज़ू होगी
ज़बान ओ लब से तर्क-ए-इल्तिजा करने का वक़्त आया
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
किसी सूरत तो शरह-ए-आरज़ू-ए-शौक़ करनी है
ज़बाँ चुप है अगर ऐ दिल तो आप अपनी ज़बाँ हो जा
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
ये लफ़्ज़-ए-सालिक-ओ-मज्ज़ूब की है शरह ऐ 'बेदम'
कि इक हुश्यार-ए-ख़त्म-उल-मुर्सलीं और एक दीवाना