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ग़ज़ल
मोहम्मद आबिद अली आबिद
ग़ज़ल
वो सितम-पेशा कहाँ शर्म-ओ-हया रखते हैं
हम ग़रीबों पे हर इक ज़ुल्म रवा रखते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
इज़्तिराब-ए-ख़ुद-नुमाई-ओ-हया में फ़र्क़ है
हम समझते हैं जो उन की हर अदा में फ़र्क़ है
उरूज ज़ैदी बदायूनी
ग़ज़ल
तुझे कुछ 'शर्म' रखनी है अब इस अज़्म-ए-मुसम्मम की
सफ़र थोड़ा सा भी ऐ कारवाँ बाक़ी न रह जाए
शर्म लखनवी
ग़ज़ल
तम्कीं से न देखे जो कभी आइना झुक कर
वो मुर्तक़िब-ए-शर्म-ओ-हया हो नहीं सकता
क़ुर्बान अली सालिक बेग
ग़ज़ल
निगह को बेबाकियाँ सिखाओ हिजाब-ए-शर्म-ओ-हया उठाओ
भुला के मारा तो ख़ाक मारा लगाओ चोटें जता-जता कर
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
हुआ बा'द-ए-वस्ल अजब मज़ा कि ख़मोश बैठे जुदा जुदा
हमा-तन मैं सब्र-ओ-सुकूँ हुआ हमा-तन-ओ-शर्म-ओ-हया हुए
क़द्र बिलग्रामी
ग़ज़ल
शरीक-ए-शर्म-ओ-हया कुछ है बद-गुमानी-ए-हुस्न
नज़र उठा ये झिजक सी निकल तो सकती है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
शब को जब अबरू-ओ-मिज़्गाँ की सफ़-आराई हुई
शोख़ियों में दब गई शर्म-ओ-हया आई हुई