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ग़ज़ल
अभी ख़ामोश हैं शो'लों का अंदाज़ा नहीं होता
मिरी बस्ती में हंगामों का अंदाज़ा नहीं होता
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
नज़र लिपटी है शोलों में लहू तपता है आँखों में
उठा ही चाहता है कोई तूफ़ाँ हम न कहते थे
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
मिलेंगे मुफ़्त शोलों की क़बाएँ बाँटने वाले
मगर रहने को काग़ज़ का मकाँ कोई नहीं देगा
ज़फ़र गोरखपुरी
ग़ज़ल
मिरे नाम के हर्फ़ चमकते हैं लेकिन ये चमक है शो'लों की
मैं एक ऐसी सच्चाई हूँ जिसे लोग क़ुबूल नहीं करते
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
तेज़ हवा का इक झोंका शो'लों में बदल के रख देगा
चिंगारी को दबाए रखना तुम ही कहो क्या मुमकिन है
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
सौ बार बसाई है शब-ए-वस्ल की जन्नत
सौ बार ग़म-ए-हिज्र के शो'लों में जले हैं