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ग़ज़ल
दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सालिक है क्यूँ तख़य्युल-ए-तर्क-ए-वजूद में
नक़्श-ए-सुवर का रंग है तेरे शुहूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
सारे रिंद औबाश जहाँ के तुझ से सुजूद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझ को इमाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मुझ में वो शख़्स हो चुका जिस का कोई हिसाब था
सूद है क्या ज़ियाँ है क्या इस का सवाल भी नहीं