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ग़ज़ल
भूले हैं अपने फ़र्ज़ को ये ख़्वाजगान-ए-हिन्द
हक़ देने में भी करते हैं इंकार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
जाम-ए-सिफ़ाल-ओ-जाम-ए-जम कुछ भी तो हम न बन सके
और बिखर बिखर गए कूज़ा-गरों के दरमियाँ
रज़ी अख़्तर शौक़
ग़ज़ल
बहाता हूँ कहीं अपने सिफ़ाल-ए-बे-मुरक्कब को
मैं गिर्ये के दिनों में चाक-ए-दुनिया पर नहीं होता
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
सभी के हाथ में मिस्ल-ए-सिफ़ाल-ए-नम नहीं रहना
जो मिल जाए वही हो कूज़ा-गर ऐसा नहीं होता
अंबरीन हसीब अंबर
ग़ज़ल
वोहीं फिर दरबार-ए-शाह-ए-हिन्द में रख कर क़दम
नाचने गाने लगी हँस हँस ब-ज़ेबाई बसंत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
बज़्म-ए-अदब-ए-हिन्द के हर गुल में है ख़ुश्बू
'मुल्ला' गुल-ए-उर्दू की महक और ही कुछ है
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
है वही निस्बत हमारी सर-ज़मीन-ए-हिंद से
जो है निस्बत शाइरी में मीर की उर्दू के साथ