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ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
ज़ख़्म को सीते हैं सब पर सोज़न-ए-अल्मास से
चाक सीने के सिलाना कोई हम से सीख जाए
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
सीते हैं सोज़न से चाक-ए-सीना क्या ऐ चारासाज़
ख़ार-ए-ग़म सीने में अपने मिस्ल-ए-सोज़न आप हैं
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
इरफ़ान सत्तार
ग़ज़ल
मुँह हर दहान-ए-ज़ख़्म का सीते हैं इस लिए
मतलब है हश्र में भी न हो दाद-ख़्वाह चोट
हफ़ीज़ जौनपुरी
ग़ज़ल
जिन्हें दरीदा-दहन कह के होंट सीते हो
उन्हें सुख़न का सलीक़ा था कुछ दिनों पहले
सईदुज़्ज़माँ अब्बासी
ग़ज़ल
सर-सिते पाँव तलक ग़र्क़-ए-अरक़ बे-वज्ह नीं
बे-हिजाब उस शोला-रू को देख शरमाती है शम्अ
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
दीवानगान-ए-ग़म भी हुशियार किस क़दर हैं
ख़ुद फाड़ कर गरेबाँ सीते हैं आस्तीं में
अब्दुल मजीद दर्द भोपाली
ग़ज़ल
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है