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ग़ज़ल
बेकार गया बन में सोना मिरा सदियों का
इस शहर में तो अब तक सिक्का भी नहीं बदला
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
वो मेरी ज़िंदगी भर की कमाई ही सही लेकिन
मैं क्या करता वही सिक्का अगर खोटा निकल आया
भारत भूषण पन्त
ग़ज़ल
कोई पुराना साथी भी शायद ही हमें पहचान सके
वर्ना इक दिन शहर-ए-वफ़ा में अपना सिक्का चलता था
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
फिर सजा देगा वो यादों के अजाइब-घर में
सोच कर अहद-ए-जुनूँ का कोई सिक्का मुझ को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
न कम हों सिक्का-ए-दाग़-ए-दिल-ए-यगाना-ए-इश्क़
भरा पड़ा रहे यारब सदा ख़ज़ाना-ए-इश्क़