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ग़ज़ल
ये फ़ज़ा के रंग खुले खुले इसी पेश-ओ-पस के हैं सिलसिले
अभी ख़ुश-नवा कोई और था अभी पर-कुशा कोई और है
नसीर तुराबी
ग़ज़ल
ख़याल-ओ-ख़्वाब की सूरत बिखर गया माज़ी
न सिलसिले न वो क़िस्से न अब वो अफ़्साने
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा
सिला-ए-शाहिद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
शिकस्त-ए-ख़्वाब के अब मुझ में हौसले भी नहीं
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
है मेरे साथ मिरे दुश्मनों से रब्त उन्हें
ये सिलसिले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं