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ग़ज़ल
ज़माने भर की कैफ़ियत सिमट आएगी साग़र में
पियो उन अँखड़ियों के नाम पर आहिस्ता आहिस्ता
मुस्तफ़ा ज़ैदी
ग़ज़ल
मिरी ज़िंदगी भी मिरी नहीं ये हज़ार ख़ानों में बट गई
मुझे एक मुट्ठी ज़मीन दे ये ज़मीन कितनी सिमट गई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
इन मध-भरी आँखों में क्या सेहर 'तबस्सुम' था
नज़रों में मोहब्बत की दुनिया ही सिमट आई