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ग़ज़ल
तिरे नीस्ताँ में डाला मिरे नग़मा-ए-सहर ने
मिरी ख़ाक पै-सिपर में जो निहाँ था इक शरारा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
वही दर्द भी है दवा भी है वही मौत भी है हयात भी
वही इश्क़ नावक-ए-नाज़ है वही इश्क़ सीना-सिपर भी है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
दिल को बचाने के लिए जाँ को सिपर करते रहे
लोगों से आख़िर क्या कहें 'शहपर' बचा कुछ भी नहीं