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ग़ज़ल
किस ज़ुल्फ़ को सुलझाएँ रक़ीबान-ए-सियह-कार
छूता नहीं इस ज़ुल्फ़ को फिर शाना हमारा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
क़हर-ए-ख़ुदा की ज़द पे क्यूँ आ न सके सियाहकार
किस की सुपुर्दगी में थे किस की पनाह में रहे
गाैस मथरावी
ग़ज़ल
बस्ता-ए-इंतिशार हैं तालिब-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार हैं
उस के सियाहकार हैं रंज-तलब बला-तलब
सय्यद अाग़ा अली महर
ग़ज़ल
हश्र में फ़ज़्ल से अपने मुझे हक़ ने बख़्शा
गो कि दुनिया में कोई मुझ सा सियहकार न था
नश्तर छपरावी
ग़ज़ल
दिखाएगा किसे महशर में अपना मुँह 'अंजुम'
सियाहकार भी है और रू-सियाह भी है