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ग़ज़ल
उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
हम ने तो अपने जिस्म में इक दिल को मारा है
क्या फिर भी सोचते हो कि क़ातिल न होंगे हम