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ग़ज़ल
दिल टूट के जुड़ता नहीं शीशा हो तो जुड़ जाए
है फ़र्क़ यही सोख़्तनी साख़्तनी में
आग़ा शाइर क़ज़लबाश
ग़ज़ल
दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे
फ़िल्स माही के गुल-ए-शम-ए-शबिस्ताँ होंगे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
सख़्त-जानी से मैं आरी हूँ निहायत ऐ 'तल्ख़'
पड़ गए हैं तिरी शमशीर में दंदाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
न मेरी सख़्त-जानी फिर न उन की तेग़ का दम-ख़म
मैं उस के इम्तिहाँ तक हूँ वो मेरे इम्तिहाँ तक है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
चलो वो कुफ़्र के घर से सलामत आ गए लेकिन
ख़ुदा की मुम्लिकत में सोख़्ता-जानों पे क्या गुज़री