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ग़ज़ल
शुग़्ल-ए-मय-परस्ती गो जश्न-ए-ना-मुरादी था
यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मजलिस-ए-वाज़ में क्या मेरी ज़रूरत नासेह
घर में बैठा हुआ शुग़ल-ए-मय-ओ-मीना न करूँ
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
मानिंद-ए-शम्अ गिर्या है क्या शुग़्ल-ए-तुरफ़ा-तर
हो जाती रात उस में बला से बसर तो है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
लब-ए-दरिया मुझे लहरों से यूँही चहल करने दो
कि अब दिल को इसी इक शुग़्ल-ए-बे-मअ'नी में राहत है
अख़्तर अंसारी
ग़ज़ल
बुत-परस्ती की बहुत 'सय्याह' अब कर याद हक़
शुग़्ल-ए-मौला में रहे बंदा वही है काम का
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
शुग़्ल-ए-शिकस्त-ए-जाम-ओ-तौबा पहरों जारी रहता है
हम ऐसे ठुकराए हुओं को मय-ख़ाने में काम बहुत
उनवान चिश्ती
ग़ज़ल
सनम उस के जमाली हैं सनम उस के ख़याली हैं
ख़ुदा-साज़ी था शुग़्ल-ए-दैर रहता क्यूँ हरम पीछे
जमील मज़हरी
ग़ज़ल
क्या शुग़्ल-ए-शजर कार है अफ़्कार से बेहतर
सौदा सर-ए-शोरीदा में गर हो न समर का
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
ग़ज़ल
वो हो शुग़्ल-ए-बादा-नोशी कि तवाफ़-ए-कू-ए-जानाँ
ग़म-ए-ज़िंदगी के मारे कोई काम चाहते हैं