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ग़ज़ल
हुसूल-ए-अम्न-ओ-मुहब्बत की चाशनी के लिए
मिज़ाज-ए-तल्ख़ी-ए-दौराँ 'सुख़न' गवारा कर
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
ग़ज़ल सुनाई जो सर्वत को मैं ने ऐ 'हाशिम'
वो बोले सुन के सुख़न-कार इक समुंदर है
हाशिम रज़ा जलालपुरी
ग़ज़ल
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
और कोई बात सर-ए-बज़्म-ए-सुख़न कब निकली
बस तिरी बात ही निकली है यहाँ जब निकली