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ग़ज़ल
लफ़्ज़ ओ बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
मेरी जस्त-ए-हुनर को लिख दे कोई सम्त-ए-मआनी और
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
लफ़्ज़-ओ-बयाँ के पस-मंज़र तक इक क़ौस-ए-इम्कानी और
मेरी जस्त-ए-हुनर को लिख दे कोई सम्त-ए-मआनी और
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
फ़क़त लफ़्ज़-ओ-बयाँ से भी कहीं बनती हैं तक़दीरें
अगर हो जज़्बा-ए-कामिल तो ख़ुद टूटेंगी ज़ंजीरें
नय्यर क़ुरैशी गंगोही
ग़ज़ल
वो जिस का हौसला लफ़्ज़-ओ-बयान में भी न था
पड़ा जो वक़्त तो वहम-ओ-गुमान में भी न था
ख़ान अतीक़ आफ़रीदी
ग़ज़ल
न क्यों अपनी मोहब्बत को ही बे-लफ़्ज़-ओ-बयाँ कर लें
ख़मोशी को ज़बाँ कर लें नज़र को दास्ताँ कर लें
जयकृष्ण चौधरी हबीब
ग़ज़ल
इश्क़ का मंसब नहीं आवाज़ा-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ
आँखों ही आँखों में हर इक शिकवा गुज़ारे जाइए