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ग़ज़ल
टूटे हुए वा'दों की सुरंगों में घरों को
जलते हुए ज़ख़्मों की शुआएँ भी बहुत हैं
दिलनवाज़ सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी
इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है