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ग़ज़ल
'जमील' इक ग़म-फ़रोश-ए-वादी-ए-ग़ुर्बत सही लेकिन
तुम्हारे शहर में कोई ठिकाना ढूँढ ही लेगा
अताउर्रहमान जमील
ग़ज़ल
बहुत दिलचस्प है 'सीमाब' शाम-ए-वादी-ए-ग़ुर्बत
वतन की सुब्ह में कुछ और थीं रंगीनियाँ फिर भी
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
बहुत ख़ुश-ज़र्फ़-ओ-ख़ुश-बीं है फ़ज़ा-ए-वादी-ए-ग़ुर्बत
ब-ज़ाहिर हमदम-ओ-दर्द-आश्ना मा'लूम होती है
राज़ चाँदपुरी
ग़ज़ल
घर अपना वादी-ए-बर्क़-ओ-शरर में रक्खा जाए
तअ'ल्लुक़ात का सौदा न सर में रक्खा जाए
अमानुल्लाह ख़ालिद
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जो भी हैं सुब्ह-ए-वतन ही के परस्तारों में हैं
किन से हम ऐ शाम-ए-ग़ुर्बत तेरा अफ़्साना कहें
कँवल एम ए
ग़ज़ल
ग़म नहीं मोनिस न हो कोई तिरे बीमार का
वादी-ए-ग़ुर्बत में उस के साथ हिम्मत आएगी