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ग़ज़ल
ख़राब सदियों की बे-ख़्वाबियाँ थीं आँखों में
अब इन बे-अंत ख़लाओं में ख़्वाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
झूम के फिर चलीं हवाएँ वज्द में आईं फिर फ़ज़ाएँ
फिर तिरी याद की घटाएँ सीनों पे छा के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जला सकती है शम'-ए-कुश्ता को मौज-ए-नफ़स उन की
इलाही क्या छुपा होता है अहल-ए-दिल के सीनों में