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ग़ज़ल
है ये फ़ख़्र जिस पे तुम को वो स्वाद-ए-रौशनी है
कभी ज़ुल्मत-ए-ज़माँ भी कहीं तार तार करते
क़ैसर ख़ालिद
ग़ज़ल
सवाद-ए-ग़म में कहीं गोशा-ए-अमाँ न मिला
हम ऐसे खोए कि फिर तेरा आस्ताँ न मिला