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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
न तो होश से तआ'रुफ़ न जुनूँ से आश्नाई
ये कहाँ पहुँच गए हम तिरी बज़्म से निकल के
ख़ुमार बाराबंकवी
ग़ज़ल
'शकेब' अपने तआ'रुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
हम उस से बच के चलते हैं जो रस्ता आम हो जाए
शकेब जलाली
ग़ज़ल
सजी है बज़्म-ए-शबनम तो तबस्सुम काम आएगा
तआरुफ़ फूल का दरपेश है तो चश्म-ए-तर ले जा