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ग़ज़ल
ताइर-ए-बे-पर बचे क्या दाम से सय्याद के
ज़द में जब सारी फ़ज़ा-ए-गुल्सिताँ तक आ गई
मुस्लिम मलेगाँवी
ग़ज़ल
क़फ़स को ले के जो उड़ा जाए गुलिस्ताँ की तरफ़
वो अज़्म ताइर-ए-बे-बाल-ओ-पर में रक्खा जाए
अमानुल्लाह ख़ालिद
ग़ज़ल
वुसअत-ए-आसमाँ सुब्ह-ए-परवाज़ का कोई मुज़्दा सुना
शाख़-ए-हसरत पे बैठे हुए ताइर-ए-बे-नवा के लिए
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
अजब दस्तूर है अबरार इस दुनिया-ए-बे-पर का
शिकस्ता-रंग पत्तों पर फ़िदा शबनम नहीं होती
ख़ालिद अबरार
ग़ज़ल
ताइर-ए-ख़ुश-रंग को बे-बाल-ओ-पर देखेगा कौन
उस को ख़ुद अपने लहू में तर-ब-तर देखेगा कौन
तुफ़ैल अहमद मदनी
ग़ज़ल
नावक-ए-बे-पर अगर है उस की मिज़गान-ए-दराज़
क़ौस क्यों समझे न आशिक़ अबरू-ए-ख़मदार को
मोहम्मद इब्राहीम आजिज़
ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर उस के लबों पर हँसी रही लेकिन
दम-ए-विदाअ' वो दर-पर्दा बे-क़रार भी था