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ग़ज़ल
तुझे ऐ ताइर-ए-शाख़-ए-नशेमन क्या ख़बर इस की
कभी सय्याद को भी बाग़बाँ कहना ही पड़ता है
जगन्नाथ आज़ाद
ग़ज़ल
शाख़-ए-बुलंद-ए-बाम से इक दिन उतर के देख
अम्बार-ए-बर्ग-ओ-बार-ए-ख़िज़ाँ में बिखर के देख
अकबर हैदराबादी
ग़ज़ल
मुसतफ़ा राही
ग़ज़ल
काट कर दस्त-ए-दुआ को मेरे ख़ुश हो ले मगर
तू कहाँ आख़िर ये शाख़-ए-बे-समर ले जाएगा