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ग़ज़ल
हैं जो ये चौदह तबक़ मुतहर्रिक ओ साकिन सदा
बे-सुख़न उन सब ज़मीन-ओ-आसमाँ को इश्क़ है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
उमीदों की चटानें जब बहेंगी सैल-ए-ग़ुर्बत में
ये मंज़र देख कर सातों तबक़ गिर्या-कुनाँ होंगे
सय्यद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी
ग़ज़ल
सीना के तबक़ में है कबाब-ए-दिल-ए-पुर-सोज़
जिस दिन से ग़म-ए-हिज्र है मेहमान हमारा
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
नो आसमाँ ख़ुर-ओ-मह सातों तबक़ ज़मीं के
रूह-ओ-हवास-ए-ख़मसा और शश-जहात तीसों
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
नशा गहरा कहाँ इतना कि हों चौदह तबक़ रौशन
तरक़्क़ी-याफ़ता मुल्कों की बादा ख़ाम है साक़ी
मानी नागपुरी
ग़ज़ल
गुलशन में चल ऐ सर्व-ए-सही सैर की ख़ातिर
तुझ वास्ते ले गुल तबक़-ए-नक़्द-ए-ज़र आया
मिर्ज़ा दाऊद बेग
ग़ज़ल
नर्गिस की ज़र-ओ-गुल पे भी वा चश्म-ए-तमा है
इस पर कि ज़र-ओ-सीम का उस पास तबक़ है
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
मिसरे पे उन के मिस्रा-ए-क़द का गुमाँ हुआ
इक तबक़ा बैत का तबक़-ए-आसमाँ हुआ