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ग़ज़ल
अपने गेसू-ए-रसा से यार रस्सी की तरह
बाँधता है आशिक़-ए-चाह-ए-ज़क़न के हाथ पाँव
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
गया जो तालिब-ए-चाह-ए-ज़कन दिल-ए-बेताब
कुएँ पे तिश्ना-लब आता है आब हो कि न हो
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
ग़ज़ल
किस का चमकता चेहरा लाएँ किस सूरज से माँगें धूप
घोर अँधेरा छा जाता है ख़ल्वत-ए-दिल में शाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मुद्दत से तेरी चाह-ए-ज़क़न में ग़रीक़ हूँ
बिल्लाह मुझ को यूसुफ़-ए-कनआ'न की क़सम