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ग़ज़ल
सिर्फ़ मिट्टी हो के रहने में तहफ़्फ़ुज़ है यहाँ
जिस ने कोशिश की मकाँ होने की बस ढह कर गया
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
खींच लाया तुझे एहसास-ए-तहफ़्फ़ुज़ मुझ तक
हम-सफ़र होने का तेरा भी इरादा कब था
अमीता परसुराम मीता
ग़ज़ल
यक़ीं नहीं है तहफ़्फ़ुज़ का अब किसी को 'ख़ुमार'
हर एक ज़ेहन में हैं एहतिमाल जितने हैं
सुलेमान ख़ुमार
ग़ज़ल
बचा लिया है जो सर अपना सख़्त नादिम हैं
मगर ये अपना तहफ़्फ़ुज़ तो बे-इरादा किया
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
अपनी शीशा-लक़बी का है तहफ़्फ़ुज़ लाज़िम
ख़ुद को पत्थर ज़दा लहजों से बचाए रखना