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ग़ज़ल
हर इक अपनी ज़रूरत के तहत हम से है मिलता
हमें भी अब कोई हस्ब-ए-ज़रूरत चाहिए है
फ़रहत नदीम हुमायूँ
ग़ज़ल
'शुजाअ' तेरे ही तहत-अल-लफ़्ज़ से कुछ हो तो हो वर्ना
ग़ज़ल में शाएरान-ए-ख़ुश-गुलू से कुछ नहीं होगा
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
चढ़ते हैं लोग फाँसी पे किस जुर्म के तहत
तख़्ती तो पढ़ ही लेते हो तख़्ते पढ़ा करो
समीना रहमत मनाल
ग़ज़ल
तहत में जब भी पढ़ी तो बन के निकली इंक़लाब
जब तरन्नुम में पढ़ी तो झूम उठी मेरी ग़ज़ल
एजाज़ुलहक़ शहाब
ग़ज़ल
सुनाते हैं तहत में जब ग़ज़ल अंदाज़ में अपने
पुकार उठती है दुनिया ज़ौक़ हम क्या ख़ूब रखते हैं
फ़ैयाज़ रश्क़
ग़ज़ल
साज़ हर दौर में बनते हैं तक़ाज़ों के तहत
साज़-ए-हस्ती हो नया फिर भी नया साज़ नहीं
ग़ुबार किरतपुरी
ग़ज़ल
न मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल
न उस को सुनने की फ़ुर्सत कहूँ तो किस से कहूँ