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ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई
हम को अपनी तीरा-रोज़ी की हक़ीक़त खुल गई
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
गरेबाँ-चाक लाखों हाथ से उस मेहर-ए-तलअत के
ब-रंग-ए-सुब्ह-ए-महशर अरसा-ए-महशर में आवेंगे
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
गई नीं बू-ए-शीर उस लब से लेकिन देख वो तलअ'त
वही महताब का है आब-ओ-अफ़्सुर्दा हो चक्का है