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ग़ज़ल
क़ाबिल अजमेरी
ग़ज़ल
है ख़ैर-ख़्वाहों की तल्क़ीन-ए-मस्लहत भी अजीब
कि ज़िंदा रहने को मैं जीते-जी ही मर जाऊँ
वहीद अख़्तर
ग़ज़ल
मयख़ाने में तू ऐ वाइ'ज़ अब तल्क़ीन के कुछ उस्लूब बदल
अल्लाह का बंदा बनने को जन्नत का सहारा क्या मा'नी
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
हर इक से हम तो बे-शक करते हैं तल्क़ीन उल्फ़त की
बड़ा तक़दीर वाला ही कोई हम-साज़ होता है
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
किसी से भी नहीं हम सब्र की तल्क़ीन लेते हैं
हमें मिलती नहीं जो चीज़ उस को छीन लेते हैं
फैज़ुल अमीन फ़ैज़
ग़ज़ल
दुआ-ए-मग़्फ़िरत तुम दो उतारे क़ब्र में कोई
पढ़ो तल्क़ीन तुम शाना हिलाए जिस का जी चाहे