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ग़ज़ल
अब कूचा-ए-दिल-बर का रह-रौ रहज़न भी बने तो बात बने
पहरे से अदू टलते ही नहीं और रात बराबर जाती है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
हमदर्दी हमदर्दी में जान ही ले कर टलते हैं
इन ज़ालिम हमदर्दों से जान छुड़ाना सहल नहीं
मेला राम वफ़ा
ग़ज़ल
दिलों में टालते हो दम निकल ही जावेगा
मैं ना-तवाँ हूँ बहुत आज़माइये न मुझे