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ग़ज़ल
क्या हुई तक़्सीर हम से तू बता दे ऐ 'नज़ीर'
ताकि शादी-मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
दिल-लगी तर्क-ए-मोहब्बत नहीं तक़्सीर मुआफ़
होते होते मिरे क़ाबू में तबीअ'त होगी
लाला माधव राम जौहर
ग़ज़ल
रक़ीबाँ की न कुछ तक़्सीर साबित है न ख़ूबाँ की
मुझे नाहक़ सताता है ये इश्क़-ए-बद-गुमाँ अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
वो जो हुए फ़िरदौस-बदर तक़्सीर थी वो आदम की मगर
मेरा अज़ाब-ए-दर-बदरी मेरी ना-कर्दा-गुनाही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
बस इस तक़्सीर पर अपने मुक़द्दर में है मर जाना
तबस्सुम को तबस्सुम क्यूँ नज़र को क्यूँ नज़र जाना
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
बद कहा मैं ने रक़ीबों को तो तक़्सीर हुई
क्यूँ है बख़्शो भी भला सब में बुरा मैं ही हूँ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तक़्सीर 'मुसहफ़ी' की होवे मुआफ़ साहिब
फ़रमाओ तो तुम्हारे ला उस को गोड़ डालूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
गिर्या भी है नाला भी है और आह-ओ-फ़ुग़ाँ भी
पर दिल में हुई उस के न तासीर किसी की
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
क्या गुनह क्या जुर्म क्या तक़्सीर मेरी क्या ख़ता
बन गया जो इस तरह हक़ में मिरे जल्लाद तू