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ग़ज़ल
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
'मोमिन' ये लाफ़-ए-उल्फ़त-ए-तक़्वा है क्यूँ मगर
दिल्ली में कोई दुश्मन-ए-ईमाँ नहीं रहा
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
कुछ नश्शा-ए-मय से नहीं कम नश्शा-ए-नख़वत
तक़्वा में भी सहबा का उठाते हैं मज़ा हम
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
ग़ज़ल
काश ज़ाहिद रुख़-ए-रौशन से उठा लें वो नक़ाब
फिर तो कुछ रिंद की रिंदी है न तक़्वा तेरा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
अर्सा-ए-हश्र में है आज क़यामत की गिरफ़्त
अब बताए तो कोई नाज़िश-ए-तक़्वा क्या है
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़
ग़ज़ल
ज़ोहद-ओ-तक़्वा ओ इस्लाह-ए-दर-हुस्न-ए-अमल
कुछ नहीं मुझ में मगर क्या तिरी रहमत भी नहीं
आसी ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
ज़ोहद हो क्यूँ न बे-असर तक़्वा हो क्यूँ न राएगाँ
कैफ़ ही कैफ़ है तिरे मय-कदा-ए-निगाह में
नसीम शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
यहाँ तो तुझ को सौ पर्दे लगे हैं अहल-ए-तक़्वा से
भला रिंदों से क्यूँ ऐ दुख़्तर-ए-रज़ तू नहीं छुपती
ऐश देहलवी
ग़ज़ल
आप की ज़ुल्फ़ों का मैं ही तो नहीं तन्हा असीर
कर गई बरबाद जो ज़ाहिद की तक़्वा आप हैं