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ग़ज़ल
तर्ग़ीब-ए-ख़ुद-ईज़ाई तो उन होंटों ने दी थी
क्यूँ फूँक दी दुनिया-ए-तरब किस से कहें क्या
हमदुन उसमानी
ग़ज़ल
क़ुबूल-ए-तौबा-ओ-अफ़्व-ए-गुनह सब कुछ सही लेकिन
कभी ना-कर्दनी की ख़ुद पशेमानी नहीं जाती
शाकिर नायती
ग़ज़ल
'इंशा' से शैख़ पूछता है क्या सलाह है
तर्ग़ीब-ए-बादा दी है मुझे ऐ जवाँ बसंत
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मैं थक चुका हूँ 'नाक़िद' तर्ग़ीब-ए-ज़िंदगी से
चाहूँ उफ़ुक़ से आख़िर रोज़-ए-फ़राग़ निकले
आदित्य पंत नाक़िद
ग़ज़ल
मुझ को आलूदा रखा इस मिरी गुमराही ने
अरक़-ए-शर्म-ए-गुनह भी तो बहाने न दिया