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ग़ज़ल
'मोमिन' वो ग़ज़ल कहते हैं अब जिस से ये मज़मून
खुल जाए कि तर्क-ए-दर-ए-बुत-ख़ाना करेंगे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
तवाफ़-ए-काबा-ओ-बुत-ख़ाना ला-हासिल समझते हैं
जो अपने दिल को हुस्न-ए-यार की मंज़िल समझते हैं
सय्यद वाजिद अली फ़र्रुख़ बनारसी
ग़ज़ल
आज हैं का'बा-नशीं कल साकिन-ए-बुत-ख़ाना हम
अपने बेगाने से यकसाँ रखते हैं याराना हम
फ़हीम गोरखपुरी
ग़ज़ल
दिल-ए-आज़ाद को वहशत ने बख़्शा है वो काशाना
कि इक दर जानिब-ए-कअबा है इक दर सू-ए-बुत-ख़ाना
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम
इक बुत-ए-ना-आश्ना से दिल लगा बैठे हैं हम
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
रुख़ था का'बे की तरफ़ उठते न थे लेकिन क़दम
शौक़ जैसे खींचता हो सू-ए-बुत-ख़ाना मुझे
ज़ब्त सीतापुरी
ग़ज़ल
रह-ए-उल्फ़त में यूँ तो का'बा-ओ-बुत-ख़ाना आता है
जबीं झुकती है लेकिन जब दर-ए-जानाना आता है
मानी जायसी
ग़ज़ल
महरम-ए-राज़-ए-हरम हूँ वाक़िफ़-ए-बुत-ख़ाना हूँ
मैं रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत का मगर दीवाना हूँ
करम हैदरी
ग़ज़ल
की सुपुर्द-ए-दर-ए-बुत-ख़ाना अजल ने मिरी ख़ाक
किस को सौंपा मुझे ज़ालिम ने ख़ुदा के बदले
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
जब से हूँ हल्क़ा-ब-गोश-ए-दर-ए-मय-ख़ाना-ए-इश्क़
शीशा पहलू में है और हाथ में पैमाना-ए-इश्क़