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ग़ज़ल
बात भी मानो किसी की कोई ये भी ज़िद है
अपने आशिक़ के तईं इतना न तरसाओ सुनो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ
मिरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आइने में उतार लूँ