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ग़ज़ल
टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए
सज्जाद बाक़र रिज़वी
ग़ज़ल
तबीअ'त बुझ गई जब से तिरे दीदार को तरसे
अगर अब नींद भी आती है उठ जाते हैं बिस्तर से