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ग़ज़ल
कैसे वो तल्ख़-तर हैं मिरे शोर-ए-इश्क़ से
क़िस्मत से अपना चाहने में भी मज़ा नहीं
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
नाज़ ओ अदा ओ ग़म्ज़ा से यूँ दिल लिया मिरा
ले जाएँ जैसे मस्त को हुश्यार खींचते
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
कह दीजो हाल देख के रहम आ गया मुझे
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
नाम-ए-'तस्कीं' पे ये मज़मून-ए-तपिश ना-ज़ेबा
था तख़ल्लुस जो सज़ा-वार तो बेताब मुझे
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
कम-बख़्त को मर कर भी तो आराम न आया
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
ऐ 'अना' तुम मत गिराना अपने ही किरदार को
उन को कहने दो कि ख़ुद-दारी कहाँ आ गई
नफ़ीसा सुल्ताना अंना
ग़ज़ल
जिस शख़्स ने भी खाए हैं संगीन ज़ख़्म-ए-दिल
देते उसी को हैं यहाँ तस्कीन ज़ख़्म-ए-दिल
मंजु कछावा अना
ग़ज़ल
शब-परस्तों को भी तस्कीन-ए-अना मिल जाएगी
उन का हक़ है उन को शब-बेदारियाँ दे दीजिए
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
ख़िदमत-ए-शेर-ओ-अदब का तो हमें दा'वा है
कोई क्या जाने कि तस्कीन-ए-अना चाहते हैं