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ग़ज़ल
हमारी ज़ीस्त में ऐसे भी लम्हे आते हैं अक्सर
दरारों के तवस्सुत से हवा देती हैं दीवारें
ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र
ग़ज़ल
रह-ए-उल्फ़त में जब तर्क-ए-तवस्सुत का मक़ाम आया
न दुनिया मेरे काम आई न मैं दुनिया के काम आया
ख़्वाजा शौक़
ग़ज़ल
शुक्रिया सा’अत-ए-दुश्वार तवस्सुत से तिरे
देर से ही सही मुझ पर मिरे अहबाब खुले
सय्यद अदील गिलानी
ग़ज़ल
मिरी रूह की हक़ीक़त मिरे आँसुओं से पूछो
मिरा मज्लिसी तबस्सुम मिरा तर्जुमाँ नहीं है