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ग़ज़ल
हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
हम अहल-ए-तज़बज़ुब किसी जानिब भी नहीं थे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
कोई तो शहर-ए-तज़ब्ज़ुब के साकिनों से कहे
न हो यक़ीन तो फिर मो'जिज़ा न माँगे कोई
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
छोड़ जाता है तज़ब्ज़ुब में वो मुझ को 'फ़ैसल'
दास्ताँ आधी सुनाता है चला जाता है
फ़ैसल इम्तियाज़ ख़ान
ग़ज़ल
तज़ब्ज़ुब के अँधेरों में भटकता है वो इक वा'दा
पलट कर जिस को आना था वो घर अब तक नहीं आया
फ़रह इक़बाल
ग़ज़ल
कितनी प्यारी है वो मासूम तमन्ना ऐ दोस्त
जो तज़ब्ज़ुब की फ़ज़ाओं में जवाँ होती है
महेश चंद्र नक़्श
ग़ज़ल
मैं आसाँ भी कठिन भी मगर तुम कौन मेरे
मैं आप अपना तज़ब्ज़ुब ख़ुद अपना फ़ैसला मैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
क्यूँ तज़बज़ुब में न हों इस दौर के अहल-ए-नज़र
गुमरही है आगही का फ़ल्सफ़ा ओढ़े हुए