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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
तीन सौ तेरह के जैसे शर्त हैं औसाफ़ भी
फ़त्ह ना-मुम्किन है ख़ाली नारा-ए-तकबीर पर
अब्दुस सत्तार दानिश
ग़ज़ल
तेरह चौदह की उम्रों में लाज़िम है मोहतात रहें हम
क्या ऐसी फलती उम्रों को कह सकता है बचपन कोई