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ग़ज़ल
ग़रज़ थी क्या तिरे तीरों को आब-ए-पैकाँ से
मगर ज़ियारत-ए-दिल क्यूँ कि बे-वुज़ू करते
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
घर कर गईं दिल में वो मोहब्बत की निगाहें
उन तीरों का ज़ख़्मी हूँ जो पैकाँ नहीं रखते
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
कुछ नहीं खुलता किस की ज़द में ये हस्ती-ए-गुरेज़ाँ है
हम जो इतने बचे फिरते हैं किन तीरों के निशाने हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये बे-दर्द ज़माना हम से तेरा दर्द न छीन सका
हम ने दिल की बात कही है तीरों में तलवारों में
हबीब जालिब
ग़ज़ल
दूर से झुण्ड परिंदों का लगते हैं ख़ेमे वालों को
किस अंदाज़ का आना है ये आग छिड़कते तीरों का
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
अक्स-ए-फ़लक पर आईना है रौशन आब ज़ख़ीरों का
गर्म-ए-सफ़र है क़ाज़-ए-क़ाफ़िला सैल-ए-रवाँ है तीरों का
ज़ेब ग़ौरी
ग़ज़ल
दिल को हम लाए थे मिज़्गाँ की सफ़ें दिखलाने
ये न समझे थे कि तीरों का निशाना होगा
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
किस सितमगर का गुनहगार हूँ अल्लाह अल्लाह
किस के तीरों से दिल-अफ़गार हूँ अल्लाह अल्लाह