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ग़ज़ल
बर्क़ किया है अक्स-ए-बदन ने तेरे हमें इक तंग क़बा
तेरे बदन पर जितने तिल हैं सारे हम को याद हुए
जौन एलिया
ग़ज़ल
एक रुख़्सार पे देखा है वो तिल हम ने भी
हो समरक़ंद मुक़ाबिल कि बुख़ारा कम है
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
नक़्श-ए-वहदत ही सुवैदा को कहा करते हैं
दिल में इक तिल है और उस तिल में ख़ुदा बैठा है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे
जब से मकतब में तू कहता था अलिफ़ बे ते से