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ग़ज़ल
फिर मुझ से क़ौम करती है क्यों मो'जिज़े तलब
जब ता'न-ए-सेह्र-ओ-तोहमत-ए-दीवानगी भी है
बशीर अहमद बशीर
ग़ज़ल
तोहमत-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना है संग-ए-बेदाद
मैं तो काँटों को भी फूलों की ज़बाँ कहता हूँ