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ग़ज़ल
क्यूँ न तश्बीह उसे ज़ुल्फ़ से दें आशिक़-ए-ज़ार
वाक़ई तूल-ए-शब-ए-हिज्र बला होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए
मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र से डरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
शब कट गई फ़ुर्क़त की देखा न 'फ़िराक़' आख़िर
तूल-ए-ग़म-ए-हिज्राँ भी बे-कार नज़र आया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
तिरे ग़म की उम्र-ए-दराज़ में कई इंक़लाब हुए मगर
वही तूल-ए-शाम-ए-'फ़िराक़' है वही इंतिज़ार-ए-सहर भी है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जूँ सुब्ह अब कहाँ है तूल-ए-सुख़न की फ़ुर्सत
क़िस्सा ही कोई दम को है मुख़्तसर हमारा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
अदा-ए-तूल-ए-सुख़न क्या वो इख़्तियार करे
जो अर्ज़-ए-हाल ब-तर्ज़-ए-निगाह-ए-यार करे