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ग़ज़ल
सुना है मैं ने सुख़न-रस है तुर्क-ए-उस्मानी
सुनाए कौन उसे 'इक़बाल' का ये शेर-ए-ग़रीब
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुझ को हैरत है कि की उम्र बसर उस ने कहाँ
इस जहालत पे तो ने तुर्क न ताजीक है दिल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
आज भी अपने वक़्त पर घर से निकल पड़ा हूँ मैं
ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क
ग़ज़ल
देखा तुझे जो ख़ून-ए-शहीदाँ से सुर्ख़-पोश
तुर्क-ए-फ़लक ज़मीं में ख़जालत से गड़ गया
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
ये क्या कि मैं नया चेहरा लिए उठूँ हर रोज़
ये क्या कि 'तुर्क' मिरा ख़्वाब टूटता ही न हो
ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क
ग़ज़ल
नेज़ा-बाज़ी पे हमें अपनी न धमका ऐ तुर्क
हम समझते हैं इसे अपनी नज़र में तिनका
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
तुझे मिलता हूँ तो औसान में आ जाता हूँ