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ग़ज़ल
खड़े हों ज़ेर-ए-तूबा वो न दम लेने को दम भर भी
जो हसरत-मंद तेरे साया-ए-दामन के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
तूबा-ए-बहिश्ती है तुम्हारा क़द-ए-रा'ना
हम क्यूँकर कहें सर्व-ए-इरम कह नहीं सकते
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
तूबा-ए-जन्नत से उस को काम क्या है हूर-वश
जो कि हैं आसूदा साए में तिरी दीवार के
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
या-रब कहाँ गया है वो सर्व-ए-शोख़-रा'ना
है चोब-ए-ख़ुश्क जिस बिन मेरी नज़र में तूबा
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
वो मेरे सामने तूबा को क़द से माप चुके
उन्हों के नाम-ए-ख़ुदा ता-कमर नहीं आता
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कहाँ वो क़द कहाँ ये कुंद-हा-ए-ना-तराशीदा
न सर्व ऐसा है ने शमशाद ऐसा है न तूबा है
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
बाग़-ए-जिनाँ कौसर का किनारा या कि पहाड़ी तूबा की
ख़्वाब की आँखों से क्या क्या दीदार किए जा सकते हैं
हिना रिज़्वी
ग़ज़ल
इस ज़मीं में वो है इक बाग़ लगा ऐ 'इंशा'
जो कि तूबा की भी चोटी को कुतर लेता है
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
लोट था दिल क़ामत-ए-दिलदार पर मुद्दत हुई
नख़्ल-ए-तूबा पर था अपना आशियाना याद है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
बैठने को शाख़-ए-तूबा पर नहीं करतीं निगाह
इस चमन की बुलबुलों का आशियाँ ही और है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
बिना-ए-मौसम-ए-ग़म-हा-ए-ज़ात है दुनिया
इसे तू रश्क-ए-इरम लिख कि शाख़-ए-तूबा लिख