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ग़ज़ल
ज़मीं ज़रख़ेज़ है ये 'मीर' 'ग़ालिब' और 'मोमिन' की
कि जिस में फ़स्ल-ए-ताज़ा अब उगाते हैं ग़ज़ल वाले
अब्दुल मन्नान तरज़ी
ग़ज़ल
सूरज जब तक ढाल रहा था सोना चाँदी आँखों में
भीड़ में सिक्के ख़ूब उछाले सब को माला-माल किया